Wednesday, September 11, 2013

बलात्कारियों की दुनिया में दबी इंसानियत की चीख

मुंबई में एक बार फिर गैंग रेप की घटना ने इंसानियत को सकते में डाल दिया है। किसी जमाने में क्राइम सिटी दिल्ली हुआ करती थी, लेकिन लग रहा है जैसे अब इसकी परिभाषा बदल रही है। मुंबई को क्राइम और रेप सिटी का तमगा दिलाने को आतुर दिख रहे दरिंदे इन दिनों यहां सक्रिय हो चले हैं।
अभी महालक्ष्मी में शक्ति मिल कंपाउंड में हुए गैंग रेप का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि यहां एक और गैंग रेप का मामला सामने आ गया है। इस बार शहर के बीचोबीच बांद्रा के निर्मल नगर में नाबालिग लड़की से दो युवकों ने रेप किया है। इन्होंने यहां कौमी एकता भी दिखाई है, क्योंकि गिरफ्तार आरोपी युवकों के नाम अख्तर कुरैशी और विजय कुमार हैं। हालांकि, इस मामले में पीडि़त नाबालिग लड़की की सहेली भी आरोपी है।
मुंबई ही नहीं, देश भर में रेप और गैंग रेप जैसी घटनाओं की आई बाढ़ लगातार इंसानियत की चूलें हिला रही हैं, लेकिन न तो हम सामाजिक तौर पर, न ही व्यक्तिगत तौर पर खुद की मानसिकता बदलने को तैयार हैं। जब भी ऐसी भयावह घटना होती है, तो चैनलों पर डिबेट शुरू हो जाते हैं, अखबारों के पन्ने न्यूज और व्यूज से रंग दिए जाते हैं, सेल्फ डिफेंस की बातें चलने लगती हैं, महिलाओं-लड़कियों के पहनावे पर फिकरे कसे जाते हैं, और तो और कई बुद्धिजीवी लड़कियों को देर रात (अब तो दिनदहाड़े भी रेप हो रहे हैं) या सूनसान इलाकों में अकेले जाने से मनाही की बात करने लगते हैं। इस बीच कोई भी इस ओर ध्यान भी नहीं देना चाहता कि समाज और इंसान की बदलती मानसिकता को पटरी पर कैसे लाया जाए।
पहले लोग हैवानियत और राक्षसी प्रवृत्ति बढऩे पर संतों की शरण में जाते थे, लेकिन अब तो नित्यानंद से लेकर आसाराम बापू तक ने जो भी तथाकथित उदाहरण पेश किए हैं, उससे वहां भी इंसानियत शर्मसार हो गई है। जब संत ही असंत हो चले, तो रेपिस्ट से भला कौन बचाए, क्योंकि जब मानसि·ता बीमार होती है, तो उसे स्वस्थ करने की जिम्मेदारी संत समाज की होती है, लेकिन जब संत समाज ही रेपिस्ट बन जाए, तो भला किसी भी समाज का भला कैसे संभव है?
रेप या गैंग रेप की घटना होने पर कुछ दिन गर्मा नर्म बहस के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है, टीवी-अखबारों के लोगों को भी दूसरी खबरें मिल जाती हैं और वे रेप या गैंग रेप के खिलाफ अपनी आवाज का रुख बदल देते हैं। यूं पीठ घुमा लेते हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं, और तो और मीडिया घरानों के मसीहा बने ऊंचे ओहदे वाले यह कहते सुने जाते हैं कि यार कितने दिन रेप चलाओगे, अब कौन देखेगा-सुनेगा-पढ़ेगा रेप और उससे जुड़ी बातें? इस सबके बीच रेप या गैंग रेप की शिकार लड़की की चीख मानों दब सी जाती है, फिर समाज उन्हें भुला देता है और इसका फायदा मिलता है आततायी को, जो फिर निकल पड़ता है अगले शिकार की तलाश में..! काश कि वह दिन लौट आता, जब मां-बहन-बेटी-पत्नी-दोस्त जैसे जहीन रिश्तों में इंसान बंध पाता!
-सर्वेश पाठक