Wednesday, September 11, 2013

बलात्कारियों की दुनिया में दबी इंसानियत की चीख

मुंबई में एक बार फिर गैंग रेप की घटना ने इंसानियत को सकते में डाल दिया है। किसी जमाने में क्राइम सिटी दिल्ली हुआ करती थी, लेकिन लग रहा है जैसे अब इसकी परिभाषा बदल रही है। मुंबई को क्राइम और रेप सिटी का तमगा दिलाने को आतुर दिख रहे दरिंदे इन दिनों यहां सक्रिय हो चले हैं।
अभी महालक्ष्मी में शक्ति मिल कंपाउंड में हुए गैंग रेप का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि यहां एक और गैंग रेप का मामला सामने आ गया है। इस बार शहर के बीचोबीच बांद्रा के निर्मल नगर में नाबालिग लड़की से दो युवकों ने रेप किया है। इन्होंने यहां कौमी एकता भी दिखाई है, क्योंकि गिरफ्तार आरोपी युवकों के नाम अख्तर कुरैशी और विजय कुमार हैं। हालांकि, इस मामले में पीडि़त नाबालिग लड़की की सहेली भी आरोपी है।
मुंबई ही नहीं, देश भर में रेप और गैंग रेप जैसी घटनाओं की आई बाढ़ लगातार इंसानियत की चूलें हिला रही हैं, लेकिन न तो हम सामाजिक तौर पर, न ही व्यक्तिगत तौर पर खुद की मानसिकता बदलने को तैयार हैं। जब भी ऐसी भयावह घटना होती है, तो चैनलों पर डिबेट शुरू हो जाते हैं, अखबारों के पन्ने न्यूज और व्यूज से रंग दिए जाते हैं, सेल्फ डिफेंस की बातें चलने लगती हैं, महिलाओं-लड़कियों के पहनावे पर फिकरे कसे जाते हैं, और तो और कई बुद्धिजीवी लड़कियों को देर रात (अब तो दिनदहाड़े भी रेप हो रहे हैं) या सूनसान इलाकों में अकेले जाने से मनाही की बात करने लगते हैं। इस बीच कोई भी इस ओर ध्यान भी नहीं देना चाहता कि समाज और इंसान की बदलती मानसिकता को पटरी पर कैसे लाया जाए।
पहले लोग हैवानियत और राक्षसी प्रवृत्ति बढऩे पर संतों की शरण में जाते थे, लेकिन अब तो नित्यानंद से लेकर आसाराम बापू तक ने जो भी तथाकथित उदाहरण पेश किए हैं, उससे वहां भी इंसानियत शर्मसार हो गई है। जब संत ही असंत हो चले, तो रेपिस्ट से भला कौन बचाए, क्योंकि जब मानसि·ता बीमार होती है, तो उसे स्वस्थ करने की जिम्मेदारी संत समाज की होती है, लेकिन जब संत समाज ही रेपिस्ट बन जाए, तो भला किसी भी समाज का भला कैसे संभव है?
रेप या गैंग रेप की घटना होने पर कुछ दिन गर्मा नर्म बहस के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है, टीवी-अखबारों के लोगों को भी दूसरी खबरें मिल जाती हैं और वे रेप या गैंग रेप के खिलाफ अपनी आवाज का रुख बदल देते हैं। यूं पीठ घुमा लेते हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं, और तो और मीडिया घरानों के मसीहा बने ऊंचे ओहदे वाले यह कहते सुने जाते हैं कि यार कितने दिन रेप चलाओगे, अब कौन देखेगा-सुनेगा-पढ़ेगा रेप और उससे जुड़ी बातें? इस सबके बीच रेप या गैंग रेप की शिकार लड़की की चीख मानों दब सी जाती है, फिर समाज उन्हें भुला देता है और इसका फायदा मिलता है आततायी को, जो फिर निकल पड़ता है अगले शिकार की तलाश में..! काश कि वह दिन लौट आता, जब मां-बहन-बेटी-पत्नी-दोस्त जैसे जहीन रिश्तों में इंसान बंध पाता!
-सर्वेश पाठक

Tuesday, September 3, 2013

आसाराम से निराशा

रेप की बढ़ती घटनाएं बदलते समाज का आइना

हते हैं समाज मन का दर्पण है, ऐसे में आजकल बढ़ती रेप की घटनाएं साफ संकेत दे रही हैं कि हमारा मन या समाज किस दिशा में बढ़ रहा है। दिल्ली गैंग रेप कांड की आंधी अभी थमी नहीं थी कि मुंबई की शक्ति मिल में भी पिछले दिनों गैंग रेप की घटना हो गई। हाल-फिलहाल एक और लड़की ने सामने आने की हिम्मत दिखाई और बताया कि उसके साथ भी उसी शक्ति मिल में जुलाई में गैंग रेप किया गया था। ऐसा लग रहा है, जैसे रेप आजकल का सबसे आसान क्राइम हो गया है, जो कभी भी कहीं भी और किसी के भी साथ हो सकता है। और तो और, संत पुरुषों पर भी बलात्कार के आरोप लगने लगे हैं, ताजा उदाहरण आसाराम बापू का सामने है, जो आजकल खासतौर पर चर्चा में है। हो भी क्यों नहीं, आखिर यह अपराध घिनौनतम या जघन्यतम ही नहीं, बल्कि दुर्दान्ततम भी है, जो सामान्य मनस्थिति वाला व्यक्ति कदापि नहीं कर सकता।
 रेपकांड में फंसे आसाराम बापू ने न केवल संत समाज को शर्मिंदा किया है, बल्कि मानव समाज को भी उसका बदलता चारित्रिक आइना दिखाया है। कहते हैं संत न छोड़े संतई, कोटिन मिले असंत, ऐसे में यह कैसे संभव है कि धर्म और अध्यात्म के संदेश प्रेषित करने वाले अधर्मी और कुध्यात्मी हो जाएं, लेकिन अब यह सच साबित हो रहा है। लोग मन की मैल साफ करने के लिए संत समागम करते हैं, लेकिन जब संत भी संतई की आड़ में दैहिक समागम करने लगे, तो मन की मैल साफ होना तो दूर, और गंदीली व भयावह हो जाएगी।
आसाराम बापू से जुड़े मसले में एक नई चीज और उभरकर सामने आई, उनके अंध अनुयायी यह भूल गए कि जिस बेटी के साथ ऐसी घटना हुई, उसकी मनोदशा क्या होगी! दिल्ली या मुंबई गैंग रेप केस में जिस कदर पब्लिक का गुस्सा फूटा, उससे लगा कि रेप के किसी भी आरोपी को लोग बर्दाश्त नहीं करते। लेकिन आसाराम बापू मामले में उनके बहुसंख्यक अनुयायी ऐसे संत की गिरफ्तारी के विरोध पर उतर आए, जिस पर बलात्कार का आरोप लगा। देश के कई शहरों-कस्बों में विरोध प्रदर्शन हुए, प्रदर्शनकारियों का तर्क था कि बापू पर मिथ्या आरोप लगा है। भई! आरोप तो आरोप होता है, फिर रेप के मामले में पकड़ा गया कौन आरोपी कहता है कि वह दोषी है! यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि अपराधी का साथ या उसे समर्थन देने वाला भी उतना ही दोषी माना जाता है, जितना अपराध करने वाला।
ऐसे में, क्या आसाराम बापू के समर्थक यह साबित करने पर तुले हैं कि वे सभी बलात्कार के आरोपी का सहयोग कर रहे हैं, फिर तो उन्हें भी बलात्कार जैसे घिनौनतम अपराध को प्रोत्साहन देने की सजा दी जानी चाहिए। अगर, यह बातें अतार्किक हैं, तो फिर किसी भी आरोपी का अंधानुसरण करने की आवश्यकता क्या है?
सर्वेश पाठक

Thursday, August 22, 2013

अंधश्रद्धा की आड़ में आसाराम बापू

संत (या यूं कहें तथाकथित!) आसाराम बापू पर लगे रेप के आरोप सभ्य समाज को असभ्यता का आइना दिखा रहे हैं। हो सकता है कि उन पर लगे बेबुनियाद हों, फिर भी कभी संस्कारी रहे भारत में आज असंस्कार इस कदर हावी हो गया है कि सदाचारी और बलात्कारी में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता है। पुलिस इस मामले में आसाराम बापू से पूछताछ करने का मन बना रही है। उनके खिलाफ रेप का मामला दर्ज हो गया है। केस दर्ज होने के बाद आसाराम बापू की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं। मामला दर्ज होने के बाद उन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। पूरा माहौल उनके विरोध में है।
इस प्रकरण के बहाने अगर हम बदलते सामाजिक ढांचे पर गौर करें, तो हमारा नैतिक पतन बड़ी तेजी के साथ हो रहा है। ये तो आसाराम बापू का मामला है, लेकिन इससे पहले भी हमारे समाज का कुत्सित चरित्र दर्शाती कई घटनाएं लोगों का जेहन ताजा करती रही हैं। अक्सर सुनने में आता है कि फलां जगह पर ढोंगी बाबा के कहने पर पिता ने बेटी से रेप कर दिया, या फलां जगह पर बेटा पैदा होने की आस में महिला की आबरू ढोंगी बाबा ने लूटी। शायद आसाराम बापू की जगह कोई ढोंगी बाबा होता, तो किसी क्षेत्रीय अखबार के भीतर के पन्ने पर सिंगल कॉलम की खबर लग गई होती, या शायद वह भी जगह नहीं मिलती और हमारा समाज अपने क्षीण होते चरित्र को प्रोत्साहित कर रहा होता। 
इतना ही नहीं, ढोंगी बाबाओं के खिलाफ आवाज उठाने वालों को सरेआम गोलियों से भूना जाता है, जैसा कि पुणे में अंधश्रद्धा निर्मूलन से जुड़े डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के साथ हुआ। डॉ. दाभोलकर का मर्डर होने के बाद कुछ नेताओं ने सीधे हिंदू संगठनों पर उंगली उठा दी, जबकि उनके सहयोगियों ने दो बड़े बाबाओं का हाथ होने का संकेत दिया। बताया गया कि डॉ. दाभोलकर इन बाबाओं की काली करतूतों का पर्दाफाश कर उनका असली चेहरा लोगों के सामने उजागर करने वाले थे। इससे स्पष्ट है कि ढोंगी बाबाओं का जाल किस कदर हमारे समाज में विष बनकर फैला है और ये अपनी कुत्सित क्षुधा पूर्ति के लिए किस हद तक जा सकते हैं।
यहां बात सिर्फ डॉ. दाभोलकर के मर्डर की नहीं, या आसाराम बापू के रेप केस में फंसने या न फंसने की नहीं है। क्योंकि, ये तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाश्चात्य सभ्यता में लिपटता, चिपटता जा रहा हमारा समाज स्वतंत्रता, स्वच्छंदता की आड़ में जिस उच्छृंखलता की ओर बढ़ रहा है, वह आजकल हर जगह किसी न किसी रूप में रेप कर रहा है। कॉर्पोरेट कल्चर में तो तमाम जगहों पर ऐसे नरपिशाच घूम रहे हैं, जो अपने तईं जमकर महिलाओं, लड़कियों को भोग्या बना रहे हैं। इनमें मीडिया हाउसेज भी शामिल हैं, हालांकि बस इनके तरीके अलग-अलग हैं। इन जगहों पर न केस दर्ज हो रहे हैं, न ही कोई आवाज उठा रहा है, बस अंदर ही अंदर चीजें सुलग रही हैं। इनमें बदलाव तभी संभव है, जब एक सामाजिक क्रांति आए और लोग खुद ब खुद अपनी कुत्सित मानसिकता पर काबू कर उसे निर्मलता में बदलें।
सर्वेश पाठक

Saturday, August 10, 2013

फ्रीडम का बदलता कलेवर

आजादी के लिए प्राण आहूत करने वालों ने हमें स्वतंत्र हवा में सांस लेने का मौका ही नहीं दिया, बल्कि राष्ट्र निर्माण का जिम्मा भी सौंपा, लेकिन आज के युवा क्या शहीदों का सपने पर खरे उतरे! आज विश्व ग्लोबल विलेज बन गया, तो तकनीकी चरम पर! जहां रिमोट से चैनल बदलते हाथ भले थक जाएं, लेकिन चैनल्स की लिस्ट नहीं। आज सूचना का अधिकार है, तो दुव्र्यवस्था की पोल खोलने पर सुरक्षा मिलने की गारंटी भी। ऐसे में युवाओं के लिए गुलामी की कल्पना सूखाग्रस्त धरती पर पैदावार तलाशने जैसा है।

युवाओं के लिए स्वतंत्रता दिवस के मायने ध्वजारोहण, स्कूल-कॉलेज के समारोह, छुट्टी का एक दिन या टीवी, एफ एम पर देशभक्ति के गाने सुनना या फिर कुछ सरकारी-गैरसरकारी कार्यक्रमों में शिरकत करना रह गया है? आजादी के बारे में इस पीढ़ी की राय थोड़ी अलग भले हो, लेकिन स्वतंत्रता दिवस का जोश वैसा ही है। कॉन्फिडेंस के साथ यह पीढ़ी आजाद भारत का वारिस होने का दम भरती है और भ्रष्टाचार, अपराध को मिटाना चाहती है। साथ ही, यह व्यक्तिगत आजादी के लिए संघर्ष करने और मर मिटने तक को तैयार है।

ऑनलाइन इंडिपेंडेंसी

इंटरनेट अफेक्शन में रची-बसी यह पीढ़ी दिल की आजादी चाहती है और विचारों की स्वतंत्रता भी। निजता की
रक्षा के लिए यह खाप पंचायत के फरमानों को ठेंगा दिखाती है, तो जाति-धर्म के बंधन से इतर रिश्तों में बंधने का दुस्साहस करती है। खास बात तो यह है कि आज सलीम के साथ अनारकली भी चुपचाप दीवार में चुन जाने की जगह प्रेम पाने की ताकत रखती है, तो दिल जोडऩे के साथ तोडऩे (ब्रेकअप) की भी स्वतंत्रता रखती है। दूसरी ओर विवाह को बंधन और तरक्की में बाधा समझने वाली यह पीढ़ी लिव इन रिलेशन जैसे रिश्तों में सुरक्षित महसूस करती है, जहां न कोई बंधन हो और न ही सरोकार।

सपनों की नई सुबह

आत्मविश्वास से लबरेज युवा वर्ग पहनावे से कैरियर तक अपना एकाधिकार चाहता है। यह अपने मन से सपने बुनता है, उसे यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिए संघर्ष करता है और फिर हौसलों से ख्वाहिशों को हकीकत में बदलने की पुरजोर कोशिश करता है। 28 वर्षीय करन दलाल मुंबई छोड़कर उत्तरांचल के एक गांव में कंप्यूटर इंजिनियरों की फौज तैयार कर रहे हैं। वे ऐसे बच्चों को कंप्यूटर सिखा रहे हैं, जो अभी इससे अनभिज्ञ हैं। करन नन्हें-मुन्नों को कंप्यूटर का ककहरा सिखा रहे हैं, ताकि वे ग्लोबल दुनिया का हाई-टेक हिस्सा बन सकें।
महिलाओं को भी सपने संजोने और उन्हें पूरा करने की आस जगी है। वह पायलट बन आसमान में उड़ सकती है, तो अंतरिक्ष में तारों से आंखें मिलाने की ताकत भी रखती हैं। फतवों को अनदेखा कर जिंदगी और अलग पहचान तलाशने में जुटी हैं। आज की नारी कहीं ज्यादा जागरूक है, यही वजह है कि न्यायालय ने सेना में भी उन्हें समान अधिकार देने की पहल की है।

सफलता हर कीमत पर

मौजूदा पीढ़ी के लिए आजादी के मायने आर्थिक मजबूती से ही है। उनकी नजर में फ्रीडम मतलब ‘मोर अर्निंग, मोर परचेजिंग’ से है यानी अगर वह आर्थिक तौर पर आजाद है, तभी खुद को सपनों की उड़ान भरने के लिए स्वतंत्रता महसूस करता है। ऐसे में, उसने जो रास्ता चुना वह है सफलता हर कीमत पर। सरकारी नौकरियों के बंधे बंधाएं वेतन की बजाय इसे पे पैकेज पर भरोसा है, यानी जितना बड़ा पैकेज उतनी बड़ी आजादी। आर्थिक स्वतंत्रता का यह मंत्र इस पीढ़ी के लिए कॉर्पोरेट शिक्षा के झरोखों से निकला है। रही सही कसर माता-पिता की उम्मीदों और शिक्षकों ने पूरी कर दी।

आजादी के युवा मायने

भारतीय युवा दो वर्गों में बंटा है, एक तरफ कुछ कर गुजरने का जोश, तो दूसरी तरफ स्वतंत्रता के नए और कुत्सित अर्थ को ही असली आजादी मानने वाला वर्ग। रेव पार्टियां या पब में जाना और मौजमस्ती के लिए शराब पीना युवाओं का फैशन है। एक सर्वे में 15 प्रतिशत युवाओं ने माना कि अपनी जगह बनाने के लिए न चाहते हुए भी शराब पीना पड़ता है। अजीब यह है कि इस सर्वे में उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं ने दूसरे युवाओं की तुलना में शराब पीने को सही ठहराया है।
कुल मिलाकर बात अगर स्वतंत्रता की करें तो वहां तक सबकुछ ठीक नजर आता है, लेकिन जब आजादी के मायने स्वच्छंदता का रूप धर लेते हैं, तो विकृति नजर आने लगती है। असली आजादी, गरिमा और मर्यादा की परिधि में रह कर वैचारिक रूप से परिवर्तन लाने की कोशिश को कहा जाना चाहिए, ना कि सिर्फ डिस्को थेक में अपना समय गुजारने और सेक्स तथा हिंसा को अपनी जिंदगी का लक्ष्य बना कर चलने को। ऐसा न हो कि स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्छंदता को प्रोत्साहित कर अपनी ही जड़ें खोखली कर लें और खून-पसीने से मिली आजादी का इस्तेमाल हमें विकास की बजाय विनाश की ओर ले जाए।
सर्वेश पाठक

Tuesday, July 30, 2013

थाली में बंटती मौत

‘मिड-डे मील’ का कहर  

बिहार: 23 मौतें, उत्तराखंड: 25 बीमार, हरियाणा: 301 बीमार, मध्यप्रदेश: 33 बीमार, गोवा: 19 बीमार, उड़ीसा: भोजन में कीड़ा, महाराष्ट्र: 87 बोतल टॉनिक एक्सपायर्ड, महाराष्ट्र: अकोला 67 छात्राएं बीमार। 

मिड डे मील की सचाई

बिहार में मिड डे मील की थाली में बंटी मौत के जहर ने देश को हिला कर रख दिया। अभी उस घटना पर क्रोध में लिपटी प्रतिक्रियाओं का दौर जारी ही था कि देश के अन्य कई राज्यों से मिड डे मील संबंधी सरकारी तंत्र में लगे दीमक का खुलासा होने लगा। उत्तराखंड में महाप्रलय से बचे-खुचे नौनिहाल थाली के जहर का शिकार होने लगे और 25 बच्चे अस्पताल पहुंच गए। फिर, हरियाणा 301 स्कूली बच्चे मिड डे मील के बाद दी जाने वाली स्वास्थ्यवद्र्धक गोलियों से अस्वस्थ हो गए। यह सिललिला थमा नहीं और मध्यप्रदेश के बालाघाट में 33 बच्चे जहरीले भोजन का शिकार हो अस्पताल पहुंच गए, फिर गोवा में 19 छात्र बीमार पड़े। उड़ीसा में दोपहर के भोजन में कीड़ा मिला, तो झटपट वितरण रोका गया। ताजा घटना महाराष्ट्र के अकोला की है, जहां 67 छात्राएं खाना खाकर बीमार पड़ गईं, जिनमें 20 की हालत गंभीर है।
कुल मिलाकर देशभर में सैकड़ों बच्चे ‘मिड-डे मील’ का शिकार रहे हैं, लेकिन न तो शासन-प्रशासन को फर्क पड़ रहा है, न ही केंद्र या राज्य सरकारें इसके प्रति गंभीर हैं। सभी राजनीति· दल अपने-अपने तईं खुद की या फिर अपने नेताओं की मार्केटिंग में व्यस्त हैं, न तो किसी को देश की जनता से सरोकार है, न ही ‘मिड-डे मील’ की आड़ में ‘जहर-खुरानी’ का! उन्हें तो बस हाय धुन ‘धन’, हाय धुन ‘वोट’ और हाय धुन ‘कुर्सी’ से मतलब है। कोई देश की गरीब आबादी को 5 रुपये में, तो कोई 12 और कोई 33 रुपये में भर पेट भोजन कराने जैसा मजाक कर रहा है। पहले इक्का-दुक्का नेता मानसिक दिवालिएपन का शिकार लगते थे, अब ज्यादातर ऐसे हैं, जिनका मानसिक स्तर उनके उद्बोधनों से स्पष्ट हो जाता है। जनता के बीच से निकले, जनता द्वारा चुने गए ये जनार्दन कब दावानल बन गए समझ ही नहीं आया और जनता है कि मूकदर्शक बन इन नेताओं की ठिठोली आत्मसात कर रही है। अब तो लोग भ्रमित होने लगे हैं कि चुनाव आने पर वोट किसे देंगे, क्योंकि सस्ता भोजन, जहरीली थाली किसी एक राजनीतिक दल या सरकार की थाती नहीं रही! लोगों को यह भान भी नहीं होगा कि वह किस कदर इन सत्ता लोलुप नेताओं के चंगुल में फंसकर अपना एक मौका (वोट देने का) बेवजह और आसानी से गंवा देते हैं।
अब कहें भी, तो कैसे कहें कि ‘जागो इंडिया, जागो’, क्योंकि दिन चढ़े घंटों हो गए, जनता को लगता है कि यह भोर की नींद है, सो वह नेताओं के दिखाए दिग्भ्रमित करने वाली सुंदर, लुभावनी, सजीली व सपनीली दुनिया में गहरी निद्रा में लिप्त है। 
सर्वेश पाठक

Monday, July 8, 2013

इंडिया में नेताओं की मौत नहीं, मौज होती है!


The monday's BIG news is... China's former railways minister Liu Zhijun was sentenced to death with a two-year reprieve here on Monday for bribery and abuse of power. As well as the suspended death sentence, the Beijing No. 2 Intermediate People's Court deprived the 60-year-old of his political rights for life and confiscated all his personal property for taking bribes. Liu was also sentenced to 10 years in jail for abuse of power, according to the court verdict.   


चीन के सरकारी मीडिया के मुताबिक़ एक अदालत ने पूर्व रेल मंत्री लियु झिजुन को भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का दोषी करार देते हुए निलंबित मौत की सजा सुनाई है। लियो झिजुन पर पिछले 25 वर्षों के दौरान एक करोड़ डॉलर की रिश्वत लेने के आरोप थे।

अब भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यहां पद के दुरुपयोग करने वाले नेताओं की फेहरिस्त काफी लंबी है। शायद ही कोई ईमानदार नेता मिले, जो शिख से नख तक साफ-पाक हो। लेकिन यहां सजाए मौत तो दूर, ऐसे नेताओं की मौज ही मौज है। तमाम बुद्धिजीवी अपने-अपने तईं ऐसे लोगों पर कार्रवाई की मांग करते रहे हैं, लेकिन क्या मजाल ऐसा कोई कानून पारित हो जाए, जो भ्रष्टाचारियों को शिकस्त दे सके। अभी भी लोगों के जेहन में अण्णा हजारे ताजा हैं, जिन्होंने अपने आंदोलन से देश में नई क्रांति छेडऩे की कोशिश की, लेकिन नेताओं की ऐसी जमात जुटी कि न तो अण्णा का आंदोलन रहा, न ही अण्णा के सहयोगी उनके साथ रहे। और तो और बाद के दिनों में ऐसे खिचड़ी आंदोलन हुए कि देश की जनता (जो कुछ झिंझुड़ी थी) फिर मान बैठी कि उसका पोरसा-हाल जानने-पूछने वाला नहीं है। पद लोलुपता में सने-पुते नेता, मंत्री सभी यथावत हैं। अब यही लगता है कि कौन जलाए मशाल-ए-करप्शन, सब देखने-सुनने की बातें हैं। 
-आपका, सर्वेश...

Sunday, July 7, 2013

ब्लास्ट के बाद, जागो रे...!

अजीब विडंबना है इस देश की..! यहां खतरे की घंटी खतरे के बाद बजती है। बोधगया में सीरियल ब्लास्ट हुए, इसके बाद देश भर के चुनिंदा राज्यों व शहरों में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया। अपने-अपने तईं नेताओं ने भाषण शुरू कर दिए, सुरक्षा-व्यवस्था का जायजा लिया जाने लगा, जगह-जगह दर्शाया जाने लगा कि हम कितने सतर्क और जागरूक हैं?
यह सिलसिला पहली बार नहीं है, 1993 में हुए मुंबई बम धमाकों के बाद से हर बार रटे-रटाए डायलॉग सुनने में आने लगे। नेताओं की ओर से आतंकवाद को कड़ा जवाब देंगे, ऐसे हमले बर्दाश्त नहीं करेंगे, हमारी सुरक्षा-व्यवस्था मजबूत है, यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता सरीखे वक्तव्य लोगों को भ्रमित करते आ रहे हैं। चैनलों-अखबारों में बहस चलाई जाती है, चर्चा-सत्र होते हैं, डिबेट चलाते हैं, कैंडल मार्च निकलते हैं, सरकार-प्रशासन को बाहर बैठे लोग जी-भरकर कोसते हैं, फिर धीरे-धीरे सब नॉर्मल हो जाता है। पब्लिक भी अपनी दिनचर्या में लग जाती है। ..और यह सब तब तक नॉर्मल रहता है, जब तक कि दोबारा कोई ब्लास्ट जैसी घटना नहीं हो जाती! 
आखिर, इस तरह के हाई अलर्ट घटना होने से पहले क्यों नहीं होते, क्या सिर्फ ब्लास्ट होने का इंतजार किया जाता है कि जब ऐसा कुछ होगा, तो हाई अलर्ट किया जाएगा और अगर हाई अलर्ट रहता है, तो घटनाएं क्यों होती हैं? क्या हमारा सुरक्षा तंत्र हमें चैन से सांस लेने का भी मौका नहीं दे सकता? अगर, सुरक्षा तंत्र फेल है, तो भ्रम में रखने के लिए बनावटी बातें करने का क्या मतलब?